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शांता एक हिंदी कहानी

 शांता की कहानी

शी वाज ए ग्रेसफुल लेडी, जैसे कायदे और सम्मान से वह जीती थी, उसी कायदे और सम्मान से उनका अंतिम संस्कार होना था. तुमने देखा नहीं, मृत्यु के समय भी उनका चेहरा कैसा शांत और निर्विकार था. सचमुच, ममा वाज वेरी ग्रेट. शांत बैठी शांता के काम में हथोड़े से बज रहे थे ये तीनो भाई और उनकी बीवियाँ थी. सचमुच वे उसके भाइयो की बीवियाँ ही तो थी. उसकी भाभियाँ होती तो शांता यू आज तक कोने में बैठी आंसू बहा रही होती.


माँ को एक न एक दिन जाना ही था पर वह इस कदर पीड़ित और अपमानित होकर जाएगी, शांता ने कभी नही सोचा था. माँ कहती भी तो थी, एक तेरी ही चिंता है री शांता, बाकि तो मेरे तीन बेटे है, इन्ही के कंधो पर चढ़कर चली जाउंगी तो स्वर्ग के द्वार सीधे खुले मिलेंगे, छोटी सी थी शांता, तब, बाबूजी के साथ बैठी माँ का वह चेहरा आज भी याद है उसे अभिमान से दप-दप दमकता चेहरा. तीन तीन बेटों की मा होने का अभिमान इतने बड़े जज साहब की बीवी होने का अभिमान. मान सम्मान रुपये पैसे किसी चीज की कमी नहीं थी. हर आने जाने वाले का सम्मान इतना किया जाता था कि वह ढेरों आशीष देता हुआ जाता था.


माँ का चेहरा ख़ुशी खिल उठता था. दो ही आशीष देना भैया. एक मेरे माथे की बिंदी चमकती रहे और दूसरे मेरे राम-लक्ष्मण बेटे दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करे. लेकिन देने वालो के आशीष नहीं फल पाए शायद क्योकि भरी जवानी में ही उनकी बिंदिया पोंछ दी गई थी


बाबूजी एक मोटर दुर्घटना में मारे गये थे. बाबूजी के पीछे-पीछे दौड़ने की आदि, उनकी छत्र-छाया में अभय पाकर, निश्चय हुई माँ एकदम असहाय हो गई. फिर कुछ ही दिनों में उनक दूसरा ही रूप दिखाई देने लगा. जैसे किसी ने उनमे प्राण फूंक दिए हो. चार-चार बिना बाप के बच्चो को पालने के लिए जो जीवट चाहिए, वह जाने कहा से उनमे उतर आई थी. फिर तो कभी उन्होंने हार ही नहीं मानी. नकुल भैया को डॉक्टर, सुहाय को इंजीनियर और छोटे बकुल भैया को वकील बनाने के लिए जुट गई वह शांता की शादी के लिए बाबूजी के एक दोस्त ने ही हाँ कर दी थी. अच्छा घर वर देखकर वह उससे भी निवृत्त हो ली.


शांता अपनी घर गृहस्थी में मगन हो गई और उसके भाई अपना करियर बनाने में. धीरे-धीरे उनकी शादियां हुई और तब माँ की जरुरत भी शायद खत्म हो गई. बकुल भैया ने पुरे घर पर अपना साम्राज्य जमा लिया था. सुहास भैया तो वैसे भी अमरीका में बस गए थे और नकुल की बीवी दिल्ली के एक करोडपति बाप की बेटी थी, सो छोटे से कस्बे का वह पुराना घर उसे पसंद नहीं था. लिहाजा घर पर सिर्फ बकुल का परिवार और माँ बची थी.


शांता कभी-कभी छुट्टियों में घर आती तो बुझे मन से लौट जाती. दो तीन दिन काटने उसके लिए मुश्किल हो जाते. भाभी की तनी भृकुटिया देखकर उसका मन यू ही नहीं होता था आने का पर मा से मिल पाने का लोभ ही था, जो उसे खीच लाता था. नेहर की इन गलियों में. पर वह क्या माँ की दुर्दशा देखने आती थी वहाँ? कैसा बुरा लगता था उसे माँ के जिस व्यक्तित्व का रौब दुसरो पर बरसो से था. वही घर में कहाँ गुम हो गया था, समझ ही नहीं पाती थी. वह कैसी निरीह हो चली थी. जैसे कोई अबोध बच्चा हो.


शांता को आज भी याद है. बकुल भैया का बड़ा लड़का उस दिन टाफियां चबा रहा था. शांता दुसरे कमरे में कुछ काम कर रही थी. अचानक उसने जो सुना, उस पर उसे विश्वास नहीं आया, वह माँ थी, जो पप्पू से टाफियां मांग रही थी. एक टाफी दे देना पप्पू,


दादी माँ, तुम्हारे दांत ख़राब हो जायेंगे, मेरे तो दांत ही नहीं है, पगले खराब क्या होंगे, फिर तुम चबओगी कैसे


नहीं वो खट्टी वाली देना ना, मैं चूसती जाऊंगी, ठहरो मैं मम्मी से पूछता हूँ. ऐ, शैतान मम्मी से पूछेगा तो क्या वो मुझे देगी. पर तुम बिना मम्मी के पूछे लोगी तो मम्मी तुम्हे और मुझे दोनों को मारेगी.


शांता ने बात सुनी अनसुनी कर दी. आगे की बात सुनने का सामर्थ्य यूँ भी उसका नहीं था. शाम को बाजार जाते वक्त उसकी आँखे एक दूकान पर सजी टाफियों पर ठहर गई. दुनिया की भूख मिटाने वाली अन्नपूर्णा आज टाफी के लिए तरस रही है. शांता का चेहरा तमतमा गया उसने खूब सारी टाफियां खरीदी और घर लौट आई, मां के पास टाफियां रखकर बोली, बच्चो के लिए लाई हूँ, तुम बाँट देना. माँ की नजरे झुक गई. शायद वह समझ गई थी कि सबुह का वार्तालाप उसने सुन लिया है लेकिन फिर भी बेटे का पक्ष लेना वह नही भूली.


शाम को बकुल आएगा तो पैसे लगाना चाहिए. हंसी आई शांता को, कहाँ के पैसे कहाँ का बकुल, माँ जो बकुल तुम्हारे आंचल की छांव में पनाह मांगता था, वह जाने कहां गुम हो गया है. अब वह बकुल नहीं है. उसने बडप्पन का चोला पहन लिया है. शांता क्या जानती नहीं, वह मा की छाया से भी दूर रहना चाहते है, कमरे में घुसते और निकलते वक्त तलाश लिया जाता है कि मा इधर-उधर गई हुई है. संवादों का माध्यम भी तो अब घर का नौकर परसराम होने लगा था. परसाराम, माँ जी को खाना दे दो, हथौड़े सा भाभी का स्वर बजता, परसराम निर्विकार भाव से थाली ले कर हाजिर हो जाता.



मा जी खाना नहीं खाना तेरे हाथ का ये गोबर सा खाना. मेरा न कोई बघार, न छौक आटे की लेई सी दाल और घास की सी रोटियां, हमें नहीं चाहिए, हाय-हाय हम तो ऐसी नरम रोटी बनाते थे कि एक बार में पूरी रोटी का एक निवाला कर लो और सब्जी एक से एक बढ़िया और यहाँ देखो, खाना बनाना आता हो नहीं.


लेकिन परसराम थाली पटक जाता था. जानता था, थोड़ी देर में भूख से बेहाल मा जी वही थाली चट कर जाएगी.


शांता भी जानती थी कि जब से मां का रसोई में घुसना बंद हुआ था, वह बहुत बैचेन और परेशान रहती थी. बाहर बैठी-बैठी चिल्लाती थी. बहू ज्यादा सीटी न लगाना. ये तुम्हारे कुकर में दाल रबड़ी सी बन जाती है. बाहर बैठी अन्दांज लगाती रहती थी. वह कि अब दाल बन रही होगी. अब सब्जी कट रही होगी?



बहु. बैगन और आलू के एक से गट्टे न करना. नहीं तो बैगन गल जायेंगे, आलू कच्चे रह जायेंगे, जले बघार की धांस आती तो वह तड़प जाती जैसे उनका खुद का कलेजा फूंक गया हो. बकुल कैसे खायेगा ऐसी दाल? उसे तो पसंद ही नहीं आएगी.



पर विडम्बना यह होती कि बकुल भैया आकर उसी दाल को बहुत सौधा और स्वादिष्ट बताते और मा के मुह पर ताला जड़ देते. मा की निरीहता में जैसे बढ़ोत्तरी हो जाती थी. सुहास और नकुल भैया दो तीन साल में एक बार आते पर तब उनके पास तो वक्त ही नहीं होता. उनकी बीवियों और बच्चो को शोपिंग, पिकनिक और रिश्तेदारों से फुरसत ही कहा मिल पाती थी. समय बचा तो प्रापर्टी और बचत आदि के कागजो में बीतता था. सारा वक्त जैसे उड़न छु हो जाता था उनका और मा घड़ी की सुइयां गिनती, कभी इस दरवाजे को देखती, कभी उस दरवाजे को हां, बहुए और पौते पोतियाँ सभी उनके पास आते थे, जब कोई चीज उनसे हथियानी होती. चाँदी सोना, जरी गोटा, पुरानी कीमती साड़ियाँ एंटिक चीजे आदि लेने के लिए तब उनमे छीना झपटी मचती और मां दमकते चेहरे के साथ अपनी ममता और चीजे, दोनों बहुओं बच्चो पर लुटाती रहती. बेटे और बहुओं की यह होड़ देखकर शांता को बहुत हंसी आती.


शायद बाद में बैठकर वे सब हिसाब भी लगाते थे कि कौन कितने फायदे में रहा. शांता को लगता है, गणित के हिसाब से तो उन्होंने धोखा ही खाया है, मां के कीमती प्यार और अनमोल ममता के बदले में उन्हें क्या मिला? आज वे सब लुटे बैठे है. कल शायद अपने अपने दायरे में, अपनी-अपनी दुनिया में कैद भी हो जाए फिर से. तब क्या उस निरीह वृद्धा का जो दुर्भाग्य से उनकी माँ थी. खयाल नहीं आएगा उन्हें? खोखले स्वार्थ और बनावटी मुस्कानों के भरोसे क्या वह जीवन के उन दिनों को भी पार कर लेंगे, जिसे लोग बुढ़ापा कहते है. शांता को दया हो आई उनकी नासमजी पर. क्या उनके साथ भी वही नहीं होगा, जो उन्होंने अपनी मा के साथ किया है?


उसने देखा बकुल भैया हिसाब लगा रहे थे 100 कम्बल भिखारियों को दिए, पंडित को 1000 रूपये, ब्रम्हाण्ड भोजन में 5000 रूपये शैया दान में 9000 रूपये.


भैया छोड़ो पैसे का चक्कर मैं कल आपको दस हजार का चैक काट देता हूँ. बाकी आप देख ले ना. यह सुहास भैया थे. हंसी आ गई शांता को रोते-रोते जो मा जीते जी दाने-दाने को तरसी उनकी मृत्यु पर ये दानवीरता दिखा रहे है उसके बेटे. उसकी आँखों के आगे पप्पू से टाफी मांगती माँ की तस्वीर घुमने लगी.    ———————————- कहानी लेखक – पुष्पा गोस्वामी

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